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श्रीमद्भगवद्गीता का यज्ञ दर्शन – एक विवेचनात्मक अध्ययन
oleh: Anurag Jayswal
Format: | Article |
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Diterbitkan: | The Registrar, Dev Sanskriti Vishwavidyalaya 2020-06-01 |
Deskripsi
यज्ञ वैदिक काल से एक प्रचलित अवधारणा रही है। यह अग्निहोत्र जैसी कर्मकांड परक क्रिया से लेकर आत्म परिष्कार की प्रखर आध्यात्मिक साधना को समाहित करता है। अन्य पुरातन विधाओं के समान यज्ञ की स्थूल मान्यता भी आज लोक प्रतिष्ठित है। यज्ञ के तीन अर्थ- दान, संगतिकरण व देवपूजन हैं। जिन के व्यापक अर्थ भगवद्गीता में मिलते हैं। भगवद्गीता में यज्ञ एक ‘जीवनदर्शन’ है। कर्म सम्पादन की शुभ्र व सप्राण प्रेरणा के रूप में यज्ञ की प्रतिष्ठा है; ‘यज्ञार्थ कर्म’ से कर्त्ता के कर्म ही आहुति रूप होकर परमार्थ के विराट कुण्ड में अर्पित किए जाते हैं। कामना, लोभ व निष्क्रियता से रहित जीवन क्रम यज्ञमय बनता है, जो संकीर्णता जन्य असंतोष से मुक्ति प्रदान करने वाला है। यज्ञीय जीवन सहकार व सह-अस्तित्व के मूल्यों से युक्त एक सतत प्रवहमान अवस्था है, जिसमें हर क्षण कर्म व्यक्त व विलीन होते हैं। गीतामें यज्ञ विविध प्रकार से है। इसे अर्पण द्वारा आरोहण की क्रिया माना गया है, जिसमें चेतना निम्न स्वभाव से उच्च व उच्चतर रूपों की ओर बढ़ती है। यह एक ओर साधनों का महत प्रयोजन के लिए संधान है, जो कर्मयोग का पर्याय बनता है, दूसरी ओर आत्म शुद्धि की सूक्ष्म व गुह्य प्रक्रिया।